ब्राह्मण से शूद्र तक...

ऋषि ज़ाबालि ने अपने एक नए शिष्या से पूछा - तेरा पिता कौन है ? तू किस जाति का है ? बालक ने माँ से पूछा तो उसने कहा की मुझे भी पता नहीं है की तेरा पिता कौन था और किस जाति का था। बालक ने यही गुरु से कह दिया। ज़ाबालि प्रसन्न हुए और कहा - तूने सत्य कह दिया। सत्य केवल ब्राह्मण बोलता है । तू ब्राह्मण है । तेरा नाम होगा - सत्याकाम। सिद्ध यह हुआ की वे ही झूठ बूलते थे। आगे खिंचो तो यह कहा जाएगा की ब्राह्मण सत्य नहीं बोलता। पंडित हज़ारिप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास "बनभट्ट की आत्मकथा" में अघोर भैरव बनभट्ट से कहता है - तू ब्राह्मण है ना रे । तेरी तो जाति ही झूठी है। यानी सम्राट हर्ष के समय यह धारणा बना ली गयी थी ।

तुलसीदास बहोत उदार, बहोत संवेदनशील और बहोत ही मानवीय थे। ब्राह्मण पुत्र होने का प्रमाण उनके पास नहीं होने के कारण काशी के ब्रह्मणो द्वारे वे अपमानित व प्रताड़ित हुए । पर वे लिखते थे...

पूजिए विप्र सिल गुण होना 
शूद्र ना पूजिए जड़पि प्रवीना

रामराज में एक ब्राह्मण अपने मारे बच्चे को हाथो में लेकर राम के सामने आया और बोला - मर्यादा पुरुषोत्तम, आपके राज में मेरे बेटे की अकाल मृत्यु हो गयी है। राम क्षुब्ध हुए। सोचा कही मर्यादा भंग हुई है। राजपुरोहित ने बताया "महाराज, शास्त्रो के हिसाब से क्षुद्रो को तपस्या का अधिकार नहीं है। मगर शमबुक नाम का एक क्षुद्र तपस्या कर रहा है। यह धर्म विरुद्ध है, पाप है, मार्यादाहीनता है। इसी कारण इस बालक की मृत्यु हुई है।"

मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने जाकर तपस्यारत शमबुक को मार डाला। तपस्या, प्रभु-प्रार्थना, प्रभु पूजा करते हुए व्यक्ति को मारना घोर पाप है। पर शमबुक तो क्षुद्र था। उसे तपस्या करते मारना पुण्य हुआ। मर्यादा पुरुषोत्तम के लिए धर्म विधान है की क्षुद्र की हत्या करने पर उतना प्रायश्चित प्राप्त है जितना सुआर को मारने पर।

बेचन शर्मा "उग्र" की अतीत काल की एक कहानी में आया है की एक आदमी किसी के घर में घुसकर स्त्री से व्यभिचार कर रहा था। बाहर आस पास के आदमी उसे मारने को खड़े थे। वह बहार निकला तो लोग जपते। उसने तुरंत अपनी janeu निकालकर दिखा दी। लोगों ने उसे छोड़ दिया - संभवत उसके चरण छूकर ।

सत्यनारायण की कथा सुनने से मंगल होता है, ऐसा विश्वास बनाया गया है। सत्यनारायण की कथा अक्सर लोग सुनते है। इसमें ऐसी कथाएँ है - किसी बनिए का जहाज़ डूब रहा था। उसने सत्यनारायण की कथा ब्राह्मण से सुनी। दान दिया। चमत्कार! जहाज़ ऊपर आ गया। सवाल है - आ कथा कौन सी थी जिसे बनिए को सुनाया गया। वास्तव में कोई कथा ही नहीं थी। यह जो सत्यनारायण कथा है, वह धंधे के लिए बनाई गई थी। हिंदू-मुसलमान, मेलजोल के नतीजे में बंगाल में "सत्यवीर" कथा बन गई है।

मनु ने तो वरना व्यवस्था को ही धर्म बना दिया। ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण पैदा हुए, भुजाओं से खसत्रिया, पेट से वैश्य और पाँवों से क्षुद्र। क्षुद्रो का धर्म, उपपर के तीनो वर्णो की सेवा करना। वे अछूत। जो काम क्षुद्र करते है, वोहि काम दुनिया की दूसरी जातियों में भी कुछ लोग करते है, पर वे अछूत नहीं होते। दास भी अछूत नहीं होते थे। प्राचीन ग्रीस में दास मालिक के साथ बैठकर भोजन करते थे। वे पढ़े लिखे होते थे और सम्पन्नो से बच्चों को पढ़ाते थे। वर्ण -व्यवस्था इतनी जड़ हो गई की "वर्ण  संकर" होना सबसे बड़ा लांछन हो गया। वर्ण  संकर उसी तरह गाली हो गया जैसे - अंग्रेज़ी का "बास्टर्ड"। धर्म का अर्थ अपना निर्धारित कर्म है। "धर्म" का अर्थ "रिलिजन" नहीं है। गीता में एक जगह कृष्ण अर्जुन से कहते है की ऐसे-वैसे कुकर्म करने से "वर्ण  संकर" संताने होगी। इतनी कठोर वर्ण मर्यादा। आज के ब्राह्मण चाहे तो ईसाई हो सकते है पर कायस्थ नहीं हो सकता।

ये व्यवस्था केवल ब्राह्मण अकेलो को दें नहीं है। समाज में उत्पादन के साधनो पर जिनका अधिकार होता हीय, वे धारम-संस्कृति पर क़ब्ज़ा कर लेते है। पशु-पालन और क़बिलाई स्टेज के बाद आर्य कृषि-कर्म करके एक स्थान पर रहेने लगे। बस्तियाँ बसी। विशाल पैमाने पर खेती शुरू हुई, हस्तोध्योग चलने लगे, व्यापार होने लगा, तब इस तरह के विभाजन की ज़रूरत महसूस हुई। ब्राह्मणो ने क्षत्रियों और वैश्यों से समझौता किया। सामन्तवाद का उदय हुआ, ब्राह्मण सामंतो के आश्रित हो गए। तब ब्राह्मण, जो विद्या दान और धार्मिक अनुशतहान कराने के कारण पूज्य और विधान देनेवाले माने जाने लगे थे, अपने और अपने दाताओ के हितो की सुरक्षा के विषय में सोचने लगे। एक वॉर्न को क्षुद्र बनाना, उसे अछूत बनाना, उसे शिक्षा-संस्कृति से वंचित करना, उसे पशु से भी बदतर स्थिति में जीने को मजबूर करना इसी वर्ग षड्यंत्र का परिणाम है, जिसे विदेशी "श्रम विभाजन" कहकर व्याख्यायित करते है ।

अछूतों की ज़िंदगी कई सदियों तक कितनी कष्टकर रही है, यह सब जानते है। नीची जातियों ने विद्रोह ना किया हो, ऐसा नहीं है। संत, भक्त और कवि पैदा करना ब्राह्मणो का एकाधिकार नहीं है। नीची जातियों ने मध्य युग में अपने संत और कवि पैदा कर लिए। कबीरदास, रैदास, कुंभंडास, नामदेव फिर महाराष्ट्र में महात्मा फुले और केरल में नारायण गुरु ने हमारे ज़माने में संघर्ष किया। महाराष्ट्र में दलित कवि और लेखक थे दया पवार, नारायण सर्वे, नामदेव धसाल आदि। हर मराठी साहित्य-सम्मेलन में इनसे उच्च वॉर्न के लेखकों की टकराहत होती है। दया पवार की आत्मकथा "अछूत" पढ़कर देखिए। रविंदरकुमार ठाकुर ने लिखा है - मेरे देशवासियों तुमने अपने ही लोगों पर सदियों से इतने अत्या चार किए है की तुम्हें इस पाप का फल भोगना पड़ेगा।

वर्ण व्यवस्था बनाने वाले ब्राह्मणो का क्या हाल हुआ ? उनका काम था चिंतन, मनन , विद्यादान। ज्ञान पर इनका एकाधिकार था। ऋषि के पास रहे बिना ज्ञान-प्राप्ति सम्भव नहीं थी। ज्ञान ऋषि के मुख में या उनके पास रखी हस्त लिखित पोथी में ही होता था। सबसे बड़ा दान विद्या दान माना गया। जिन ऋषियों का उल्लेख पुरानो में आता है, सिर्फ़ उतने ही नहीं होते थे। उनके तो कुल होते थे जिनके वे कुलपति होते थे। मगर गाँव गाँव में विद्या दान करने वाले ब्राह्मण थे। इन्हें सम्मान पूर्वक समाज पालता था। इन्हें चरण छूकर दान दिया जाता था। ब्राह्मणो में से ही पुरोहित पैदा हुए। ये भिक्षा नहीं माँगते थे। ये धार्मिक कर्मकांड कराते थे, पुत्र जन्म, मुंडन, काँछेदन, विवाह, श्राद्ध आदि से इन्हें काफ़ी धन और अनाज मिल जाता था। इन ब्राह्मणो ने धंधे में व्यवसायी वर्ग को भी मात कर दिया।

आगे ज्ञान का एकदिहिकार ब्राह्मणो का नहीं रहा। क्षत्रिय जब बस गए, भूमिपटि हो गए, तब उन्होंने ज्ञानार्जन और चिंतन किया। ब्राह्मणो से क्षत्रियों के शस्त्र और शास्त्र डोनी से संघर्ष हुए। क्षत्रियों में बड़े बड़े रिशु और चिंतक हुए। ब्राह्मणो ने कोई उत्पादन नहीं सिखा, ना किया। सुदामा पतिनि से कहते है - "औरं को धन चाहिए बाबरी, बांभं को धन केवल भिच्छा।" पूरोहित्या की सीमा होती है। ब्राह्मण भिक्षा -वृत्ति पर जीवित रहने लगे। पहले सनमान से गृहस्थ भिक्षा देता था, बाद में कहने लगा - आगे देखो । फिर कहने लगा - अरे भाग, चला आता है कभी भी । जो जाति उत्पादन नहीं करेगी, उसे भीख माँगना ही पड़गा।

वर्णो में जातियाँ, उपजातियाँ बनी। ये ज़्यादातर भौगोलिक कारणो से तथा आवागमन की कठिनाइयों के कारण बनी। सरयू बड़ी नदी है। बरसात में उफानती है। पुल नहीं है। तो इस पार के ब्राह्मण आपस में विवाहदी सम्बंध कर लो। उस पार मत करो ये "सरयुपारि" ब्राह्मण हो गए। नर्मदा के किनारे बसने वाले ब्राह्मण "नार्मादिया" या "नारामदेव" हो गए।

इसी तरह क्षत्रियों और वैश्यों में भी सैकड़ों जातियाँ और उपजातियाँ हो गयी। इनमे अपनो में ही खान-पान और विवाह सम्पन्न होने लगे। दहेज-प्रथा का एक कारण एक सीमित छोटी उपजाती में ही लड़की के लिए पति प्राप्त करना भी है। माँग की पूर्ति कम कर दो तो क़ीमत बढ़ जाति है ।

तीनो ऊँचे वर्गों ने वे काम, जो ब्रह्मा ने मनु के द्वारा उन्हें दिए, उन्हें छोड़ कर दूसरे काम-धंधे अपना लिए। ब्राह्मण भोजन बनाने, पानी पिलाने, जूठी गवाही देने और दल्लाली करने में लग गए। अकबर - बीरबल विनोद में यह बिलकुल सही है -

लाओ बीरबल ऐसा नर, पीर बावर्ची भिश्ति खर ...

बीरबल ने एक ब्राह्मण को लाकर अकबर के सामने खड़ा कर दिया । पर अब ब्राह्मण ऊँची से ऊँची नौकरियों में है। नीची से नीची नौकरियों पर भी है। ब्राह्मण व्यवसायी है। एजेंट है। पलीस अफ़सर है। और डाकु भी है। ब्राह्मण ज़मींदार रहे है और अब बड़े भूपति है।

पर यह भी सही है की बहोत से ब्राह्मण ग़रीबी की रेखा के नीचे जीवित रहेते है। क्षत्रियों ने एक वर्ण के रूप में युद्ध कर्म छोड़ दिया । वे ज़मींदार हो गए, व्यापारी हो गए। ऊँची नौकरियों पर है, नीची से नीची नौकरी पर भी है ठाकुर साहब। साहब भी ठाकुर है और चपरासी भी ठाकुर है। ठाकुर डाकू भी है और ठाकुर पलीस भी है। मगर बहुत से ठाकुर क्षत्रिय ग़रीबी की रेखा के नीचे रहते है। इन जातियों में ग़रीबी की रेखा के नीचे जीनेवाले बहोत ही काम प्रतिशत होते है। मगर सबसे अधिक बेकारी इनहि वर्णो में होती है। शिक्षित, बेरोज़गारी के शिकार इन जातियों में काफ़ी प्रतिशत होते है, इनमे जो भूमिपटि है या व्यापारी है, उनके लड़के भी अपने धंधो को छोड़कर नौकरी चाहते है। गाँव से बड़े किसान का लड़का शहर पढ़ने आ गया तो वह लौटकर ज़मीन पर नहीं जाना चाहता। वह शहर में ही छोटी नौकरी भी कर लेगा। इन वर्णो ने निम्न वर्ण के धंधे भी हातिह्या लिए है। मशीन से धुलाई होने लगी तो ब्राह्मण ने भी लॉंड्री खोल ली। और दो नौकर रख लिए। धोबियों का धंधा आधा रह गया। औध्योगिकारन और उपभोक्तावाद ने हस्तोध्योग नष्ट कर दिए। यह सही है की हस्तोध्योग से इतना विपुल उत्पादन नहीं हो सकता जो आज देश की ज़रूरत को पूरा कर सके।

नीची जातियों और क्षुद्र धंधे नहीं बदल सकते। ये परम्परागत धंधे करने को मजबूर है। चमार अगर छोटी सी परचूँ की दुकान खोल ले, तो ऊँची जाति के लोग चमारे की दुकान से वस्तु नहीं ख़रीदेंगे। इन जातियों में जोई कार्य विधि है, वह उनकी पहचान हो गई है। उनके औज़ार उनकी घटिया जाति की पहचान बन गए है। गाँव का चमार जो अपने औज़ारों से हाथ से काम करता है, चमार हाउ और अछूत है। पर उसका लड़का नकनिक सीखकर जुटी के कारख़ाने में काम करता है तो वह कारगर होता है और अछूत नहीं रहता। पर ऐसे मौक़े बहोत काम लोगों को मिलते है। जहाँ फ़्लश पाख़ाने हो गए है वहाँ मेहतर सिर पर मैला नहीं धोते। वे सफ़ाई ज़रूर करते है, वे मैला धोने वालों से काम अछूत है। काम करने के औज़ार और तरीक़े बदलने से जाति भेद भी काम हो जाता है।

मेरे शहर में रक्षा उत्पादन के पाँच कारख़ाने है। इनमे बिना आरक्षण के काफ़ी नीची जातियों के लोग अप्रशिक्षित कर्मचारी है। कुछ प्रशिक्षित भी। इन्हें अच्छा वेतन मिलता है और ये कुछ बेहतर स्थिति में रहते है। औध्योगिकारन जाति भेद पूरी तरह नहीं मिटा सका, फिर भी कुछ फ़र्क़ पड़ा है। विडम्बना यह है की साहब चपरासी भी नीची जाति का नहीं रखना चाहता। चौथी श्रेणी की नौकरी भी नीची जातिवालो को नहीं मिलती। साहब ब्राह्मण चपरासी रखना चाहता है, क्योंकि वह घर में अफ़सरनी की चौके में मदद भी कर सकता है। बच्चों को गोदी में खिला सकता है।

इन नीच जातियों के धंधे भी ऊँची जातियों ने छिन लिए। ब्राह्मण और वैश्य जब जुटे बनवाएँगे और बेचेंगे तो चमार का धंधा गया। शास्त्रों, स्मृतियों, पूराणो को ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में नहीं समझने से भूले होती है, ग़लत निष्कर्ष निकलते है। शास्त्र, स्मृति, पुराण औध्योगिक सभ्यता के युग में नहीं लिखे गए। कृषि सभ्यता के युग में लिखे गए थे। उन्हें जैसा का तैसा आज लागू करना सम्पूर्ण जाति के आत्मघात का प्रयास है। कब लिखा ? किसने लिखा ? किसके हित के लिए लिखा ? उत्पादन के साधन क्या थे ? वे किनके हाथो में थे ? इन सब बाटो के समझे बिना शास्त्रों और स्मृतियों के उदाहरण देकर समाज के एक हिस्से को उसके मानवीय अधिकारो से वंचित करना अज्ञानता तो है की, कुछ लोगों की स्वार्थपरता भी है। वास्तविकता बदलती रहती है। बदलती वास्तविकता के साथ नए विचार और नयी व्यवस्था आनी चाहिए। यदि यह नहीं होता तो समाज में संकट पैदा होता है, जैसा इस समय है। यह पुराना रोग है। पर कुछ रोग रोगी को प्रिया हो जाते है, जैसे दाद का रोग। दाद खुजलाने में मज़ा आता है। जातियों को भी दाद हो जाती  है, जिसका वे इलाज ना करके उसे खुजलाने का मज़ा लेने लगती है।

जय हिंद।

Comments

  1. शमबुक का कहाँ जिक्र है रामायण में ?

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  2. महोदय आप भ्रामक जानकारी बांट रहें है।
    आपको ईश्वर छमा करें

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