श्री डो. बाबासाहेब अम्बेडकर का अधूरा सपना... जाती मुक्त भारत...


"Annihilation of Caste" - जाती मुक्त भारत, बाबा साहेब अम्बेडकर की वो बात जो वे १९३६ में नहीं कर पाए। ये स्पीच बाबा साहेब ने "जात पात तोड़क मंडल" के लाहोर सम्मेलन के लिए लिखी थी। उस स्पीच को पढ़ कर ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है की बाबा साहेब का सपना क्या था। आज आज़ादी के ७० साल बाद भी जब अपने देश को देखता हु तो ख़ुद से पूछता हु की क्यों इन सत्तर सालों में एक भी बाबा साहेब इस देश में पैदा नहीं हुए ? क्या हमने ही उन्हें पैदा नहीं होने दिया ? आज इस विषय पर खुल कर बात करते है। उम्मीद है की आप भी अपने विचार बिना किसी डर के टिप्पणी दे के नीचे देंगे।



वैसे तो जाती व्यवस्था आदि काल से चली आ रही है, यहाँ तक की रामायण में भी जातिगत समाज व्यवस्था का ज़िक्र किया गया है। हाल की मनुस्मृति उपनिषद में वर्ण व्यवस्था को सविस्तार समझाया गया है। वर्ण व्यवस्था से ही जाती व्यवस्था की जड़े निकलती है। जहाँ मनुस्मृति मनुष्य को चार वर्ण में बाटता है, आगे जाके उसमें जाती का प्रवेश होता है। ये चार वर्ण है, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और क्षुद्र। मनुस्मृति में इन चारों वर्णो की रचना, उनके आचरण और उनके कर्तव्यों को घोषित किया गया है। किसी ज़माने में ये व्यवस्था उपयुक्त रही होगी, उस विषय पर चर्चा करके कोई फ़ायदा नहीं है। मगर अब प्रश्न ये खड़ा होता है की ये व्यवस्था आज के समाज और समय के अनुपात कितनी असरकारक और ज़रूरी है ?

वक़्त के साथ हिंदू समाज ने जाती प्रथा, बहुपत्नि प्रथा, बाल विवाह और सती प्रथा जैसी कुप्रथाओ से छुटकारा पा लिया। लेकिन जाती प्रथा से अभी भी छुटकारा नहीं मिला। इसका एक कारण ये हो सकता है की ये प्रथा इतनी भी बुरी नहीं है और इस देश और धर्म को बनाए रखने में इसका कोई ना कोई योगदान बिलकुल है। तो ये पकड़ के चल सकते है की जाती व्यवस्था इतनी भी बुरी नहीं है। मगर जाती व्यवस्था से जो समस्याएँ खड़ी होती है उन पर तो सविस्तार विचार होना चाहिए। जैसे की honor killing, या निचली जाती की औरतों का बलात्कार, या जातिगत आरक्षण वग़ैरा वग़ैरा ।

कई बहसों में हम सुनते रहते है की inter caste marriages इस समस्या का समाधान है। मगर क्या यही एक उपाय है ? ये प्रश्न में इस लिए पूछ रहा हु की अगर ये उपाय कारगर है तो कोई ये बताए की पिछले सत्तर सालों में देश के कितने लोग "जाती मुक्त" हो चुके है ? मेरे हिसाब से तो कोई भी नहीं। जातिगत व्यवस्था तो ज्यों की त्यों बनी रही है। यदि आप कोई भी शादी के सम्बंधित विज्ञापन देखेंगे तो आप समझ जायेंगे की हम कितनी जातियों में बटे हुए है। दरसल हम सब हमारी जाती से इतने चिपके हुए है की हमें इसे छोड़ने में डर लगता है। तो फिर कैसे बनायेंगे जाती मुक्त भारत ?

कही तो हमारे समाज और सरकार, दोनो ने कठिन क़दम उठाने होगे। अगर जाती मेरे जीवन में और मेरे अस्तित्व में कोई किरदार नहीं निभा रही तो मुझे ऐसी जाती से कोई भी पहचान पाना ग़ैरवाजिब होगा। ज़ाहिर है की में ना भी चाहू तो भी में जन्म हु इस जाती के साथ और मरूँगा भी तो इस जाती के साथ। तो फिर क्यों ना हम ये करे की हम ख़ुद से आगे आए और समाज को बताए की में किसी भी जाती में विश्वास नहीं करता। अगर मेने प्रेम विवाह करके किसी दूसरी जाती का जीवन साथी पसंद किया है तो मेरे किसी भी जाती के नहीं कहलायेगे। 

ये मेरे कुछ विचार है, जिनको सविस्तार सोचा जा सकता है।

  • ये मेरा जन्मसिध्द अधिकार होना चाहिए की में अपनी जाती को त्याग सकू।
  • यदि में और मेरा जीवन साथी अलग अलग जाती से है तो हमारा बच्चा किसी भी जाती का नहीं होगा। वो जाती मुक्त होगा।
  • किसी भी बच्चे और युवा (१८ साल से नीचे की उम्र वाले) को उसकी जाती पूछना क़ानूनी जुर्म माना जाए।
  • जातिगत आरक्षण को "श्रेणिगत आरक्षण" में बदला जाए। हर जाती एक श्रेणी में आए ना की जाती ही एक श्रेणी बन जाए। (इसके बारे में में विस्तार से अगले किसी ब्लॉग में लिखूँगा।)
  • कोई भी सरकारी या ग़ैर सरकारी आवेदन पत्र में जाती ना पूछ के "श्रेणी" (caste  category जैसे की SC, ST, OBC या General ) पूछा जाए।

(इनके बारे में अगले कुछ ब्लॉग में सविस्तार लिखने की कोशिश करूँगा।)

ये कुछ ऐसे क़दम है जिन्हें उठाने से किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन अगर किसी को आपत्ति है भी तो इसे बहस से सुलजाया जा सकता है।

कृपया आप अपने विचार नीचे टिप्पणी दे कर दे।

जय हिंद। 

(जाती मुक्त भारत एक प्रयास है समाज को बदलने का। इसका प्रचार करके इस कार्य में अपना योगदान ज़रूआर दे।)

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